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देवों के देव महादेव के अर्धनारी स्वरूप से तो हम सब परिचित हैं, लेकिन भगवान श्री कृष्ण के अर्धसुंदरी रूप से शायद हम सभी अनजान हैं…


हमारे पौराणिक और ऐतिहासिक मंदिरों में से एक गोपाल सुंदरी मंदिर जहां भगवान श्री कृष्ण हमें अर्ध सुंदरी स्वरूप में दर्शन देते हैं। यह मंदिर भारत में केवल दो ही जगह पर हैं, उनमें से यह एक पवित्र मंदिर, सूर्यपुत्री मां तापी के तट पर बसे सूर्यपुर(सूरत शहर) की कहीं जाने वाली कुवारिका भूमि, यानी वह स्थान जहां कर्ण का अंतिम संस्कार किया गया था उस तीन पान के बरगत के पेड़ के बगल में हमारे नटखट कृष्ण अर्धसुंदरी स्वरूप में इस गोपाल सुंदरी मंदिर में विराजमान हैं…

gopal sundari temple in surat

कहा जाता है कि गोपाल सुंदरी के रूप में भगवान कृष्ण का ऐसा दूसरा मंदिर केवल दक्षिण भारत में ही है…

समग्र विश्व को राह दिखाता हजारों वर्ष पुरातन गौरवशाली भारतवर्ष के पौराणिक इतिहास एवं हमारे आराध्यों के विभिन्न रूपों की ऐसी अनेक गाथाओं को हम जानें और इससे जुड़ी मानव मूल्यों को सार्थक करती हमारी सांस्कृतिक परंपराओं का गौरवपूर्वक अनुसरण करते हुए हमें विश्व कल्याण के लिए प्रतिबद्ध होना हैं।

औरंगजेब के काल में उसकी बहन जहाँ आरा को सूरत इनाम (जागीर) के रूप में दिया गया था। वह जिस क्षेत्र में रहती थी, उसे आज बेगमवाड़ी और बेगमपुरा के नाम से जाना जाता है।

mughal akbar aur surat story

सोलहवीं शताब्दी के आरंभ में पुर्तगालियों ने सूरत बंदरगाह पर अधिकार कर लिया। उन्होंने शहर को लूटा और यहाँ के वैभव को नष्ट कर दिया। पुर्तगालियों के आक्रमणों से बचने के लिए सूरत के गवर्नर ख्वाजा सफर सलमानी ने 1540 ई. में छोटे पुराने किले के स्थान पर एक नया, मजबूत, ऊंचा और विशाल किला बनवाया, जो आज भी तापी नदी के होप ब्रिज के पास विद्यमान है। मुगल सम्राट अकबर स्वयं सूरत को जीतने के लिए यहां आए और डेढ़ महीने की घेराबंदी के बाद उन्होंने फरवरी 1573 में सूरत किले पर अधिकार कर लिया। मुगल काल में सूरत की जनसंख्या, क्षेत्रफल, व्यापारिक संबंध और समृद्धि में काफी वृद्धि हुई थी।

औरंगजेब और बेगमपुरा की कहानी…

हिंदू कैलेंडर के आषाढ़ महीने के सातवें दिन को तापी नदी का उद्गम माना जाता है जो तीन राज्यों मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात से होकर कुल 724 किलोमीटर का रास्ता तय करती है। तापी नदी के रास्ते में 24 छोटी नदियाँ मिलती हैं, नर्मदा के साथ तापी नदी के दोनों किनारों को पवित्र माना जाता है और इसी पवित्र तापी नदी के तट पर हमारा सूरत शहर बसा है जहा यह पवित्र नदी समुद्र को मिलती है।

सोलहवीं शताब्दी के मुगल इतिहास का प्रारंभिक शहर, सूरत और अकबर…

क्या आप जानते है "सूरत" में स्थित महादेव की रक्षा भौंरो ने की थी ? जब एक मुग़ल राजा ने सूरत में स्थित महादेव के मंदिर को लूट कर ध्वस्त करने की कोशिश की, तब महादेव का जो शिवलिंग था उसमे से भौंरे निकले और उस मुग़ल सेना पर आक्रमण किया।

यह पौराणिक मंदिर "सिद्धनाथ महादेव" से जाना जाता है और वह शिवलिंग में आज भी छिद्र पाए जाते है, जो इस गाथा की सच्चाई को सिद्ध करता है।

तापी पुराण महाग्रंथ में, तापी और सूरत शहर का गाढ़ संबंध दर्शाया गया है...
श्रीकृष्ण को अपने हाथों से क्यों करना पड़ा कर्ण का अंतिम संस्कार…?
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महाभारत की कथा के अनुरूप दानवीर कर्ण की मृत्यु में भगवान कृष्ण निमित थे।  आपको ज्ञात होगा’ कि, मृत्यु के बाद दानवीर कर्ण का अंतिम संस्कार सूरत में हुआ था, हमारे पौराणिक दो प्रमुख ग्रंथ रामायण और महाभारत हिंदू संस्कृति की नींव हैं। महाभारत हमें जीवन जीने का तरीका सिखाती है। महाभारत में एक से बढ़कर एक महात्माओं का जिक्र है, जिनमें से एक हैं कर्ण। बहुत कम लोग जानते हैं कि, महाभारत के कर्ण का दाह संस्कार सूरत में हुआ था। कर्ण का दाह संस्कार सूरत में ही क्यों किया गया, इसके पीछे भी एक कहानी हैं।

पांडवों की माता कुंती के सबसे बड़े पुत्र,  दानवीर कर्ण की जीवन गाथा के बारे में तो हमने बहुत कुछ सुना होगा। लेकिन क्या आपने कभी उनकी मृत्यु के बारे में सुना है ?

जब महाभारत के युद्ध में जब अर्जुन और कर्ण के बीच युद्ध चल रहा था, तब कर्ण के रथ का पहिया जमीन में धंस गया था। तब कर्ण ने अपने पितामह भीष्म द्वारा बनाए गए नियमों की चर्चा करते हुए अर्जुन से कहा, "हे अर्जुन, जब तक मैं रथ का पहिया नहीं निकाल देता, तब तक तुम मुझ पर आक्रमण नहीं करोगे।" यह सुनकर अर्जुन रुक गए। तब भगवान कृष्ण ने कहा, हे अर्जुन, तुम रुक क्यों रहे हो ? बाण चलाओ। जब अर्जुन ने कहा कि वे युद्ध नियम के विरुद्ध हैं। तब भगवान कृष्ण ने उन्हें याद दिलाया कि अभिमन्यु अकेले लड़ रहा था, तब उन्हें युद्ध के नियम का खयाल नहीं आया। क्या उन्हें याद नहीं कि जब सभागार में द्रौपदी के साथ दुर्व्यवहार किया गया था, तब नियमों का उल्लंघन हुआ नहीं हुआ था ? यह बात सुनकर अर्जुन क्रोधित हो गए और उन्होंने भगवान शिव द्वारा दिए गए अस्त्र से कर्ण पर आक्रमण कर दिया। अर्जुन के इस बाण से कर्ण मृत्यु के निकट पहुंच गए। जब ​​कर्ण अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे थे, तब भगवान श्री कृष्ण ने कर्ण की परीक्षा लेने हेतु ब्राह्मण का रूप धारण किया और कहा, 'हे कर्ण, मेरी बेटी का विवाह हो रहा है और मेरे पास उसे देने के लिए सोना नहीं है, इसलिए मुझे कुछ सोना दे दो।' तब कर्ण ने कहा कि मेरे पास कुछ भी नहीं है। मैं आपको क्या दान कर सकता हूं ?

तब ब्राह्मण(श्रीकृष्ण) ने कहा कि तुम्हारे पास सोने का दांत है। इसे दान कर दो। कर्ण ने कहा, मुझे पत्थर से मार कर मेरा दांत तोड़ दो। ब्राह्मण(श्रीकृष्ण) ने ऐसा करने से मना कर दिया और कहा कि वह स्वयं दान कर दे। इसके बाद कर्ण ने अपने पास पड़ा पत्थर उठाया और उससे अपना दांत तोड़कर ब्राह्मण(श्रीकृष्ण) को दे दिया। इस पर ब्राह्मण(श्रीकृष्ण) ने कहा कि वह दांत गंदा हो गया है, इसे साफ कर लो। इस पर कर्ण ने जब अपने धनुष से धरती पर बाण चलाया तो वहां से गंगा की तेज धारा निकली। अपने दांत धोने के बाद कर्ण ने कहा कि अब वह स्वच्छ हो गया है। इसके बाद कर्ण को एहसास हुआ कि यह कोई साधारण ब्राह्मण नहीं है, यह तो परमात्मा है। तब कर्ण ने कहाँ, तुम मुझे अपना असली रूप दिखाओ। बाद में भगवान कृष्ण अपने असली रूप में प्रकट हुए। तब श्रीकृष्ण ने कर्ण से कहा कि "तुम्हारा बाण गंगा युगों-युगों तक तुम्हारा गुणगान करता रहेगा।" संसार में तुम्हारे जैसा महान दानी न कभी हुआ है और न कभी होगा।

श्रीकृष्ण ने कर्ण से कहा कि वह उनसे कोई भी वरदान मांग सकता है। कर्ण ने कृष्ण से कहा कि उसके साथ बहुत बड़ा धोखा हुआ है, क्योंकि वह एक गरीब सारथी का पुत्र है। भविष्य में जब कृष्ण जी धरती पर आएं तो पिछड़े वर्ग के लोगों का जीवन सुधारने का प्रयास करें। इसके साथ ही कर्ण ने दो और वरदान मांगे।

दूसरे वरदान के रूप में कर्ण ने कहा कि अगले जन्म में कृष्ण उसके राज्य में जन्म लें और तीसरे वरदान में उसने श्री कृष्ण से मांगा कि उसका अंतिम संस्कार कुंवारी भूमि पर किया जाए।

समग्र वसुंधरा पर खोज करने पर सूर्य पुत्री तापी के पवित्र तट पर बसे हमारे सूर्यपुर(सूरत) में केवल एक दंड जितनी एसी कुंवारी भूमि और कुंवारी नदी ही मिली, तापी नदी को कुवारी माता नदी के नाम से भी जाना जाता है।

इसी तापी नदी के तट पर कर्ण का अंतिम संस्कार किया गया था और आज भी यहां कर्ण का मंदिर है। सूरत का चारधाम मंदिर और तीन पत्तों वाला बरगद का पेड़ कर्ण के अंतिम संस्कार का प्रमाण है। तापी नदी के तट पर कर्ण के अंतिम संस्कार के बाद जब पांडवों ने कुंवारी भूमि को लेकर संदेह जताया तो श्री कृष्ण ने कर्ण को दर्शन दिए और हवा के माध्यम से बताया कि वह सूर्य का पुत्र है और अश्विनी और कुमार उसके भाई हैं। तापी उसकी बहन है। इसलिए उसका अंतिम संस्कार कुंवारी भूमि पर ही किया गया। इसके बाद पांडवों ने कहा कि हमें तो पता चल गया है, लेकिन आने वाले युगों को कैसे पता चलेगा ? तब भगवान कृष्ण ने कहा कि यहां एक तीन पत्तों वाला वृक्ष होगा जो ब्रह्मा, विष्णु और महेश का प्रतीक होगा। ऐसा माना जाता है कि अगर कोई सच्ची आस्था के साथ यहां प्रार्थना करता है, तो उसकी मनोकामना अवश्य पूरी होती है। इस प्रकार, यह वृक्ष आज भी सूरत में तापी नदी के तट पर है और इसके पास ही तीन पत्तों वाला एक बरगद का वृक्ष है। जिसे अग्रेजी भाषा में थ्री लीफ क्लोवर के नाम से जाना जाता है।

सूरत में स्थित सिद्धनाथ महादेव की रक्षा भौंरो ने की थी…
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रामायण में आते एक प्रसंग में राजा दशरथ के वचनों के कारण जल भरते समय श्रवण कुमार की अकाल मृत्यु होती है। अपने पुत्र की मृत्यु से दुखी होकर श्रवण कुमार के माता-पिता राजा दशरथ को श्राप देते है कि, उनकी मृत्यु भी अपने एक पुत्र के प्रेम से वंचित होकर होगी। राम के वनवास के बाद अपने पुत्र को न देख पाने के दुख में राजा दशरथ की मृत्यु हो जाती है, लेकिन उन्हें मिले श्राप के कारण वे स्वर्ग प्राप्त नहीं कर सके। बड़े पुत्र के जीवित रहते दूसरे पुत्र द्वारा किए गए अंतिम संस्कार और कर्मकांड भी शास्त्रों के अनुसार मान्य नहीं हैं। ऐसी स्थिति में राजा दशरथ को मोक्ष नहीं मिल सका। भगवान मर्यादा पुरुषोत्तम को राजा दशरथ द्वारा ताप्ती के महात्म्य के बारे में बताई गई कथा का ज्ञान था, इसलिए उन्होंने सूर्यपुत्री देवकन्या मां आदिगंगा ताप्ती के तट पर अपने छोटे भाई लक्ष्मण और अपनी अर्धांगिनी सीता माता की उपस्थिति में ताप्ती नदी में अपने पूर्वजों और अपने पिता का तर्पण कार्य संपन्न किया। भगवान श्री राम ने बारह लिंग नामक स्थान पर रुककर यहां भगवान विश्वकर्मा की मदद से ताप्ती के तट पर स्थित चट्टानों पर 12 लिंगों की आकृति उकेरी और उनकी प्राण प्रतिष्ठा की। आज भी बारहलिंग में ताप्ती स्नान जैसे कई ऐसे स्थान हैं, जो यहां भगवान श्री राम और माता सीता की मौजूदगी का प्रमाण देते हैं। एक अन्य कथा के अनुसार ऋषि दुर्वासा देवलघाट नामक स्थान पर ताप्ती नदी के बीच स्थित एक चट्टान के नीचे बनी सुरंग से स्वर्ग के लिए प्रस्थान कर गए थे।

भगवान श्री कृष्ण एवं दानवीर कर्ण के जीवन प्रसंग और महाभारत के इतिहास से जुड़ा हमारा सूरत शहर।

सूरत शहर का इतिहास केवल बंदरगाह व व्यापार तक सीमित नहीं है, हमारे पुरातन सूर्यपुर का इतिहास तो हमारे महान प्रमुख दो ग्रंथ रामायण एवं महाभारत के साथ मुगल शासन के अकबर,औरंगजेब, जहाँगीर जैसे नामों के साथ भी जुड़ा हुआ हैं। सूरत शहर के आध्यात्मिक इतिहास में रामायण की बात करें तो, प्रथम नाम आता है हमारे आराध्य भगवान श्रीराम और उनके पिता राजा दशरथ का, मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम और राजा दशरथ के जीवन प्रसंग के कुछ पहेलु का हिस्सा रहे।

कंटारेश्‍वर महादेव मंदिर।

सूरत में एक पौराणिक मंदिर है, जिसका उल्लेख तापी पुराण में मिलता है और जो भगवान श्रीराम से जुड़ा हुआ है। मंदिर में पूजा की एक अनूठी परंपरा है, जहाँ पहली आरती गणेशजी की नहीं, बल्कि सूर्य देव की की जाती है।

रामनाथ शिव घेला मंदिर

 सूरत में एक मंदिर है, जहाँ भगवान शिव के भक्त मकर संक्रांति के त्यौहार के पवन दिवस पर शिवलिंग पर जीवित केकड़े चढ़ाते हैं। कहा जाता है कि यह परंपरा रामायण की एक कहानी से उत्पन्न हुई है, जहाँ भगवान श्रीराम ने समुद्र पार करते समय अपने पैरों पर बह रहे केकड़े को आशीर्वाद दिया था।

सोने से लिखी रामायण।

 सूरत के एक राम भक्त ने 1981 में एक स्वर्ण रामायण पुस्तक बनाई। यह पुस्तक 222 तोले सोने, हीरे और झवेरात से बनी है और इसका वजन 19 किलोग्राम है। इसे साल में केवल एक बार राम नवमी के अवसर पर जनता के दर्शन के लिए लाया जाता है।

भगवान राम की छवियों वाली साड़ी।         

हमारे आराध्य प्रभु श्रीराम की जन्मभूमि अयोध्या में मंदिर के 565 वर्ष के संघर्ष के बाद न्यायिक मार्ग से मिले हक के बाद जब अयोध्या में प्रभु श्रीराम मंदिर बनना शरू हुआ और जब मूर्ति प्राणप्रतिष्ठा का अवसर आया तब सम्पूर्ण भारत के साथ पूरा विश्व भी राम मय हो गया था। इस प्रसंग में हमारे सूरत में भगवानश्री राम और अयोध्या मंदिर की छवियों वाली एक विशेष साड़ी तैयार करके अयोध्या भेजी गई थी।

पढ़ें: राजा दशरथ और सूरत की ताप्ती नदी

भारतवर्ष, भरतखण्ड, आर्यावर्त, जम्बूद्वीप, हिंदुस्तान या फिर इंडिया...क्या है हमारे देश का सही नाम...? समय के साथ भारत देश को विभिन्न नाम दिए गए है, इसका कारण है कि हमारा देश विश्व के सभी देशों से बहुत प्राचीन रहा है। समय के साथ यहाँ कई राजवंशों ने राज्य किया, कई आक्रांताओं एवं विदेशी ताकतों ने इसे लूटने बरबाद ने के इरादे से यहा अपना शासन जमाया। भारत का संपर्क विदेशो से सदा से रहा है। विदेशियों के लिए भारत सदैव आकर्षण का केंद्र रहा है। यहाँ की सभ्यता, संस्कृति, रहन-सहन व सम्पन्नता को लोग आश्चर्य की दृष्टि से देखते रहे थे। भारत के बारे में तरह-तरह की कल्पनाये करते रहते थे और इस देश को देखने को लालायित रहते थे। भारत विश्व का पहला ज्ञान अधिष्ठित समाज था। प्राचीन भारत में जीवन के प्रत्येक क्षेत्र पहलू में ज्ञान की साधना और भंडार निर्मित किया गया था। निकोला टेस्ला, निल्स भोर, हाइजनबर्ग जैसे विद्वानो ने हमारे उपनिषदों का अभ्यास किया और उससे प्रेरणा प्राप्त की थी। पूरे वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत का योगदान 25 प्रतिशत से ऊपर ही बना रहा है। खाद्य सामग्री, इस्पात, कपड़ा एवं चमड़ा आदि पदार्थ तो जैसे भारत ही पूरे विश्व को उपलब्ध कराता था। परंतु, 712 ईसवी में सिंध प्रांत के तत्कालीन राजा श्री दाहिर सेन जी को कपटपूर्ण तरीके से मोहम्मद बिन कासिम द्वारा युद्ध में परास्त कर उनकी हत्या करने के बाद आक्रांताओं को भारत में प्रवेश करने का मौका मिल गया। उस समय तक भारत को ‘सोने की चिड़िया’ कहा जाता था। दरअसल, उस खंडकाल तक भारत से वस्तुओं का निर्यात पूरे विश्व को बहुत अधिक मात्रा में होता था इसके एवेज में विश्व के अन्य देशों द्वारा भारत को सोने की मुद्राओं में भुगतान किया जाता था। इससे भारत में स्वर्ण मुद्रा के भंडार जमा हुआ करता था, इसी कारण भारत को ‘सोने की चिड़िया’ कहा जाने लगा था।

प्राचीन समय में हमारे देश की समृद्धि प्रमुख स्थान पर थी। इसीलिए विश्व के अनेक देशों की नजर हमारे देश पर थी। तभी वैश्विक क्षितिज पर फैले भारत देश पर कई देशों के लोगों ने शासन किया और भारत एवं भारतियों को गुलाम बनाया। फिर भी भारतीय प्रजाने विश्व प्रजाजन के लिए “वसुधैव कुटुम्बकम्” की भावना को अपनाए रखा है। और इसे अपना मूल मंत्र बनाया हैं। भारत देश ने हंमेशा दूसरे देशों के संप्रदाय, भाषा, संस्कृति जैसे अनेक मूल्योकों आदर से अपनाया है। उपनिषद सहित कई ग्रंथो में “वसुधैव कुटुम्बकम्” मंत्र लिपिबद्ध हुआ है। जिसका अर्थ समग्र पृथ्वी एक परिवार है... एसा होता है। भारतीय लोगों ने इसे आध्यात्मक द्रष्टिकोणको अपना कर हमेशा से मानवता को अपना मूल मंत्र बनाए रखा है।

 हमारी पृथ्वी, आकाश एक ही है, सूर्य, चन्द्र हर एक देश में एक जैसे ही दिखते है, समुद्र में पानी भी एक जैसा ही होता है, एक पैड या छोड़ कभी जाती पूछ कर अपना फल नहीं देता। तो फिर मनुष्य में भेदभाव कैसा...? एसी महान विचारधारा भारत के प्रजातंत्र में शामिल किया हया है। भारत एक प्राचीत संस्कृति वाला देश है। भारत के प्राचीन ग्रंथ ‘विष्णुपुराण’ में भारत के बारे में शब्द उद्धृत किये गये हैं की,,,

उत्तरम् यत् समुद्रस्य हिमाद्र चैव दक्षिणम्।
 वर्षं तत् भारतम् नाम भारती यत्र सन्ततिः॥

अर्थात् समुद्र के उत्तर मे और हिमालय के दक्षिण मे आई भूमि का नाम भारत वर्ष हैं। जिसके संतान भारतीय हैं। एसा कहा गया हैं। समग्र भारत में शुभकार्य के प्रारंभ में संकल्प लिया जाता है तब “भारतवर्ष”, “भरतखंड”, “जंबुद्वीप”, “आर्यव्रत” आदि शब्दों के उल्लेख भारत देश के लिए उपयोग किया जाता हैं। जिसके पुर, पश्चिम और दक्षिण एसे तीनों दिशाओं में विशाल समुद्र आया हुआ है और उत्तर दिशा में हिमालय की खूबसूरत पहाड़ियाँ आई है। एसी प्राकृतिक सुंदरता धारण करने वाला हमारा देश भारतवर्ष विश्वके महानतम, प्राचीनतम, सांस्कृतिक, धार्मिक एवं आध्यात्मिक सजीव राष्ट्र है। सिंधु सभ्यता की नई शोध के मुताबिक मिश्र, मेसोपोटेमिया, बेबीलोन, यूनान और रॉम से भी पुराना है। परदेशीयों की नजर से भारतीय इतिहास लेखन, उसका स्वरूप, संकल्पना, विश्लेषण एवं चिंतन की परंपरा सबसे पहले यहीं विकसित हुई। भारतवर्ष की आध्यात्मिक शक्ति और इस शक्ति से जुड़ी हमारी वैदिक सनातन सांस्कृतिक प्रणाली से पश्चिम का वैज्ञानिक ज्ञान हमेशा से प्रभावित रहा है। जिन्होंने हमारी वैदिक संस्कृति को शब्दों का रूप दिया, हमारे ग्रंथों, वेदों की रचना की, जो संपूर्ण विश्व के संचालन का मूल आधार माने जाते हैं, जिन्होंने सदियों पहले पूरी दुनिया को ब्रह्मांड का दर्शन कराया उन असंख्य महान ऋषि-मुनियों ने जहां जन्म लिया ये वह धरती हैं। ये वह तपो की भूमि है, जिसकी महान सांस्कृतिक विरासत आज भी पूरे विश्व का मार्गदर्शन करती हैं।

akhand bharata

भारतवर्ष की इस तपो भूमि में हमारा पुरातन सूर्यपुर जो अभी सूरत शहर से जग विख्यात है, इस सूरत शहर का इतिहास 300 ईसा पूर्व का है। इस शहर के नाम का भी एक प्रभावी इतिहास है। सूरत शहर के नाम के इतिहास की बात करें तो, तापी नदी के तट पर बसे हमारे शहर का नाम सूर्यपुत्री के नाम से सूरत पड़ा है। सूर्यपुर का प्रारंभिक उल्लेख हमें ई.स. 1457 के जैन धातुप्रतिमा पर के आलेख में देखने को मिलता है। पद्रहवीं सदी के उतरार्ध के दौरान जैनोंने नया नाम सूर्यपुर प्रचलित किया था। अपितु इससे पहले चौदवी और पद्रहवीं सदी में प्रमुख ‘सूरत’ व ‘सुरति’ नाम प्रचलित ही था। हमारे शहर का नाम ‘सूरत’ तुर्कियों ने दिया है। भाषाशास्त्र  में प्रखर गुजरात के श्री केशवराम शास्त्री जी ने सूर्यपुर से ‘सुरति’ नाम आया है एसा तर्क देते हुए कहते है कि, तापी के सूर्यपुत्री है और उसके उत्तरी किनारे पर सूर्य पत्नी ‘रत्ना’ के नाम से रांदेर (रन्नेअर, रन्नेर, रानेर, रांदेर) नगर है, तो दक्षिण तट पर भी सूरी के सुर के साथ सबंध रखता नगर हो सकता है। प्राचीन समय में दक्षिण गुजरात के तापी के तटीय विस्तारों में सूर्यवंशी राजाओं का शासन था, उसके पश्च्यात ‘कान्हडदे प्रबंध’में ‘सुरति’ नाम का उल्लेख मिलता है और बाद में जैन ग्रंथो में तो आसानी से ‘सुरति’ का उल्लेख मिल रहा है।

हमारे सूरत शहर का इतिहास ईसा पूर्व 300 से भी पुराना है, सूरत के बारे में मुस्लिम इतिहासकारों ने उल्लेख किया है कि कुतुबुद्दीन ऐबक ने 1194 ई. में सूरत का दौरा किया और मोहम्मद तुकलाक ने 1347 ई. में। सुल्तान फिरोग तुकलाक ने सूरत की सुरक्षा के लिए एक छोटा किला बनवाया। गुजरात के गवर्नर जफरखान ने 1391 ई. में अपने बेटे मस्तीखान को रांदेर और सूरत का गवर्नर नियुक्त किया। मूल सूरत में दरिया महल, शाह पोर, नानावत, सोदागरवाड़ आदि क्षेत्र शामिल थे। हालांकि, मलिक गोपी नामक एक अमीर व्यक्ति ने गोपीपुरा बसाया, गोपी तालाब बनवाया और इसके क्षेत्रों का विस्तार किया। उसने अपनी पत्नी की याद में यहाँ रामीतला का निर्माण भी करवाया था। इसके बाद उसे सूरत का गवर्नर नियुक्त किया गया।

16वीं, 17वीं और 18वीं शताब्दियों में समुद्री व्यापार के माध्यम से सूरत वैश्विक व्यापारियों का केंद्र रहा है। एक समय था जब भारतवर्ष की विश्व के देशों के साथ व्यापारिक लेनदेन इसी शहर के अंतर्राष्ट्रीय चोर्यासी बंदरगाह से होती थी। यह पश्चिमी भारत का प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय बंदरगाह था। कहीं जगहों के जहाज सूरत से ही चलते थे। शहर का मुगल सराय विस्तार जहा कभी विश्व के व्यापारियों का पड़ाव रहता था। मुगल काल में सूरत में वीरजी वोरा, कृष्ण अर्जुन त्रवडी, आत्माराम भुखन आदि जैसे बहु-करोड़पति थे। विभिन्न देशों के कई जहाज व्यापार के लिए यहाँ आते थे, एक समय था जब यहाँ चोर्यासी बंदरगाह के झंडे लहराते थे, तब इसका नाम चोर्याटी रखा गया था। 16वीं सदी में अग्रेजों ने अपनी ईस्ट इंडिया कंपनी का प्रारंभ यहीं से किया था। कुर्जा के सामने एक टकसाल थी, जहाँ सोने और चाँदी के सिक्के ढाले जाते थे। आज भी हमारा सूरत शहर भारत के आर्थिक उपार्जन के प्रमुख शहर में से एक है। इस तरह हमेशा से एक बड़ा व्यापारिक केंद्र रहा हमारा सूरत शहर आज भी देश के एक महत्वपूर्ण औद्योगिक केंद्र और वाणिज्यिक केंद्र के रूप में ख्याति प्राप्त कर चुका है। ब्रिज सिटी से मशहूर हमारे सूरत शहर में विश्वका सबसे बड़ा हीरा उद्योग एवं कपड़ा उद्योग है। भारत के सबसे गतिशील शहरों में से एक हमारे सूरत के विकास का दर गुजरात के विभिन्न भागों और भारत के अन्य राज्यों से आए आप्रवासियों के कारण सबसे तेज़ है।

सूरत शहर का इतिहास केवल बंदरगाह व व्यापार तक सीमित नहीं है, हमारे पुरातन सूर्यपुर का इतिहास तो हमारे महान प्रमुख दो ग्रंथ रामायण एवं महाभारत के साथ मुगल शासन के अकबर,औरंगजेब, जहाँगीर जैसे नामों  के साथ भी जुड़ा हुआ हैं। सूरत शहर के आध्यात्मिक इतिहास में रामायण की बात करें तो, प्रथम नाम आता है हमारे आराध्य भगवान श्रीराम और उनके पिता राजा दशरथ का, मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम और राजा दशरथ के जीवन प्रसंग के कुछ पहेलु का हिस्सा रहे हमारे सूरत शहर के इतिहास पर विस्तार से बात करें तो,

सूरत शहर और हमारे आराध्य प्रभु श्रीराम की ऐतिहासिक कथा…
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