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भारतवर्ष एवं सूरत शहर का भव्य पुरातन इतिहास

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भारतवर्ष, भरतखण्ड, आर्यावर्त, जम्बूद्वीप, हिंदुस्तान या फिर इंडिया...क्या है हमारे देश का सही नाम...? समय के साथ भारत देश को विभिन्न नाम दिए गए है, इसका कारण है कि हमारा देश विश्व के सभी देशों से बहुत प्राचीन रहा है। समय के साथ यहाँ कई राजवंशों ने राज्य किया, कई आक्रांताओं एवं विदेशी ताकतों ने इसे लूटने बरबाद ने के इरादे से यहा अपना शासन जमाया। भारत का संपर्क विदेशो से सदा से रहा है। विदेशियों के लिए भारत सदैव आकर्षण का केंद्र रहा है। यहाँ की सभ्यता, संस्कृति, रहन-सहन व सम्पन्नता को लोग आश्चर्य की दृष्टि से देखते रहे थे। भारत के बारे में तरह-तरह की कल्पनाये करते रहते थे और इस देश को देखने को लालायित रहते थे। भारत विश्व का पहला ज्ञान अधिष्ठित समाज था। प्राचीन भारत में जीवन के प्रत्येक क्षेत्र पहलू में ज्ञान की साधना और भंडार निर्मित किया गया था। निकोला टेस्ला, निल्स भोर, हाइजनबर्ग जैसे विद्वानो ने हमारे उपनिषदों का अभ्यास किया और उससे प्रेरणा प्राप्त की थी। पूरे वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत का योगदान 25 प्रतिशत से ऊपर ही बना रहा है। खाद्य सामग्री, इस्पात, कपड़ा एवं चमड़ा आदि पदार्थ तो जैसे भारत ही पूरे विश्व को उपलब्ध कराता था। परंतु, 712 ईसवी में सिंध प्रांत के तत्कालीन राजा श्री दाहिर सेन जी को कपटपूर्ण तरीके से मोहम्मद बिन कासिम द्वारा युद्ध में परास्त कर उनकी हत्या करने के बाद आक्रांताओं को भारत में प्रवेश करने का मौका मिल गया। उस समय तक भारत को ‘सोने की चिड़िया’ कहा जाता था। दरअसल, उस खंडकाल तक भारत से वस्तुओं का निर्यात पूरे विश्व को बहुत अधिक मात्रा में होता था इसके एवेज में विश्व के अन्य देशों द्वारा भारत को सोने की मुद्राओं में भुगतान किया जाता था। इससे भारत में स्वर्ण मुद्रा के भंडार जमा हुआ करता था, इसी कारण भारत को ‘सोने की चिड़िया’ कहा जाने लगा था।

प्राचीन समय में हमारे देश की समृद्धि प्रमुख स्थान पर थी। इसीलिए विश्व के अनेक देशों की नजर हमारे देश पर थी। तभी वैश्विक क्षितिज पर फैले भारत देश पर कई देशों के लोगों ने शासन किया और भारत एवं भारतियों को गुलाम बनाया। फिर भी भारतीय प्रजाने विश्व प्रजाजन के लिए “वसुधैव कुटुम्बकम्” की भावना को अपनाए रखा है। और इसे अपना मूल मंत्र बनाया हैं। भारत देश ने हंमेशा दूसरे देशों के संप्रदाय, भाषा, संस्कृति जैसे अनेक मूल्योकों आदर से अपनाया है। उपनिषद सहित कई ग्रंथो में “वसुधैव कुटुम्बकम्” मंत्र लिपिबद्ध हुआ है। जिसका अर्थ समग्र पृथ्वी एक परिवार है... एसा होता है। भारतीय लोगों ने इसे आध्यात्मक द्रष्टिकोणको अपना कर हमेशा से मानवता को अपना मूल मंत्र बनाए रखा है।

 हमारी पृथ्वी, आकाश एक ही है, सूर्य, चन्द्र हर एक देश में एक जैसे ही दिखते है, समुद्र में पानी भी एक जैसा ही होता है, एक पैड या छोड़ कभी जाती पूछ कर अपना फल नहीं देता। तो फिर मनुष्य में भेदभाव कैसा...? एसी महान विचारधारा भारत के प्रजातंत्र में शामिल किया हया है। भारत एक प्राचीत संस्कृति वाला देश है। भारत के प्राचीन ग्रंथ ‘विष्णुपुराण’ में भारत के बारे में शब्द उद्धृत किये गये हैं की,,,

उत्तरम् यत् समुद्रस्य हिमाद्र चैव दक्षिणम्।
 वर्षं तत् भारतम् नाम भारती यत्र सन्ततिः॥

अर्थात् समुद्र के उत्तर मे और हिमालय के दक्षिण मे आई भूमि का नाम भारत वर्ष हैं। जिसके संतान भारतीय हैं। एसा कहा गया हैं। समग्र भारत में शुभकार्य के प्रारंभ में संकल्प लिया जाता है तब “भारतवर्ष”, “भरतखंड”, “जंबुद्वीप”, “आर्यव्रत” आदि शब्दों के उल्लेख भारत देश के लिए उपयोग किया जाता हैं। जिसके पुर, पश्चिम और दक्षिण एसे तीनों दिशाओं में विशाल समुद्र आया हुआ है और उत्तर दिशा में हिमालय की खूबसूरत पहाड़ियाँ आई है। एसी प्राकृतिक सुंदरता धारण करने वाला हमारा देश भारतवर्ष विश्वके महानतम, प्राचीनतम, सांस्कृतिक, धार्मिक एवं आध्यात्मिक सजीव राष्ट्र है। सिंधु सभ्यता की नई शोध के मुताबिक मिश्र, मेसोपोटेमिया, बेबीलोन, यूनान और रॉम से भी पुराना है। परदेशीयों की नजर से भारतीय इतिहास लेखन, उसका स्वरूप, संकल्पना, विश्लेषण एवं चिंतन की परंपरा सबसे पहले यहीं विकसित हुई। भारतवर्ष की आध्यात्मिक शक्ति और इस शक्ति से जुड़ी हमारी वैदिक सनातन सांस्कृतिक प्रणाली से पश्चिम का वैज्ञानिक ज्ञान हमेशा से प्रभावित रहा है। जिन्होंने हमारी वैदिक संस्कृति को शब्दों का रूप दिया, हमारे ग्रंथों, वेदों की रचना की, जो संपूर्ण विश्व के संचालन का मूल आधार माने जाते हैं, जिन्होंने सदियों पहले पूरी दुनिया को ब्रह्मांड का दर्शन कराया उन असंख्य महान ऋषि-मुनियों ने जहां जन्म लिया ये वह धरती हैं। ये वह तपो की भूमि है, जिसकी महान सांस्कृतिक विरासत आज भी पूरे विश्व का मार्गदर्शन करती हैं।

akhand bharata

भारतवर्ष की इस तपो भूमि में हमारा पुरातन सूर्यपुर जो अभी सूरत शहर से जग विख्यात है, इस सूरत शहर का इतिहास 300 ईसा पूर्व का है। इस शहर के नाम का भी एक प्रभावी इतिहास है। सूरत शहर के नाम के इतिहास की बात करें तो, तापी नदी के तट पर बसे हमारे शहर का नाम सूर्यपुत्री के नाम से सूरत पड़ा है। सूर्यपुर का प्रारंभिक उल्लेख हमें ई.स. 1457 के जैन धातुप्रतिमा पर के आलेख में देखने को मिलता है। पद्रहवीं सदी के उतरार्ध के दौरान जैनोंने नया नाम सूर्यपुर प्रचलित किया था। अपितु इससे पहले चौदवी और पद्रहवीं सदी में प्रमुख ‘सूरत’ व ‘सुरति’ नाम प्रचलित ही था। हमारे शहर का नाम ‘सूरत’ तुर्कियों ने दिया है। भाषाशास्त्र  में प्रखर गुजरात के श्री केशवराम शास्त्री जी ने सूर्यपुर से ‘सुरति’ नाम आया है एसा तर्क देते हुए कहते है कि, तापी के सूर्यपुत्री है और उसके उत्तरी किनारे पर सूर्य पत्नी ‘रत्ना’ के नाम से रांदेर (रन्नेअर, रन्नेर, रानेर, रांदेर) नगर है, तो दक्षिण तट पर भी सूरी के सुर के साथ सबंध रखता नगर हो सकता है। प्राचीन समय में दक्षिण गुजरात के तापी के तटीय विस्तारों में सूर्यवंशी राजाओं का शासन था, उसके पश्च्यात ‘कान्हडदे प्रबंध’में ‘सुरति’ नाम का उल्लेख मिलता है और बाद में जैन ग्रंथो में तो आसानी से ‘सुरति’ का उल्लेख मिल रहा है।

हमारे सूरत शहर का इतिहास ईसा पूर्व 300 से भी पुराना है, सूरत के बारे में मुस्लिम इतिहासकारों ने उल्लेख किया है कि कुतुबुद्दीन ऐबक ने 1194 ई. में सूरत का दौरा किया और मोहम्मद तुकलाक ने 1347 ई. में। सुल्तान फिरोग तुकलाक ने सूरत की सुरक्षा के लिए एक छोटा किला बनवाया। गुजरात के गवर्नर जफरखान ने 1391 ई. में अपने बेटे मस्तीखान को रांदेर और सूरत का गवर्नर नियुक्त किया। मूल सूरत में दरिया महल, शाह पोर, नानावत, सोदागरवाड़ आदि क्षेत्र शामिल थे। हालांकि, मलिक गोपी नामक एक अमीर व्यक्ति ने गोपीपुरा बसाया, गोपी तालाब बनवाया और इसके क्षेत्रों का विस्तार किया। उसने अपनी पत्नी की याद में यहाँ रामीतला का निर्माण भी करवाया था। इसके बाद उसे सूरत का गवर्नर नियुक्त किया गया।

16वीं, 17वीं और 18वीं शताब्दियों में समुद्री व्यापार के माध्यम से सूरत वैश्विक व्यापारियों का केंद्र रहा है। एक समय था जब भारतवर्ष की विश्व के देशों के साथ व्यापारिक लेनदेन इसी शहर के अंतर्राष्ट्रीय चोर्यासी बंदरगाह से होती थी। यह पश्चिमी भारत का प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय बंदरगाह था। कहीं जगहों के जहाज सूरत से ही चलते थे। शहर का मुगल सराय विस्तार जहा कभी विश्व के व्यापारियों का पड़ाव रहता था। मुगल काल में सूरत में वीरजी वोरा, कृष्ण अर्जुन त्रवडी, आत्माराम भुखन आदि जैसे बहु-करोड़पति थे। विभिन्न देशों के कई जहाज व्यापार के लिए यहाँ आते थे, एक समय था जब यहाँ चोर्यासी बंदरगाह के झंडे लहराते थे, तब इसका नाम चोर्याटी रखा गया था। 16वीं सदी में अग्रेजों ने अपनी ईस्ट इंडिया कंपनी का प्रारंभ यहीं से किया था। कुर्जा के सामने एक टकसाल थी, जहाँ सोने और चाँदी के सिक्के ढाले जाते थे। आज भी हमारा सूरत शहर भारत के आर्थिक उपार्जन के प्रमुख शहर में से एक है। इस तरह हमेशा से एक बड़ा व्यापारिक केंद्र रहा हमारा सूरत शहर आज भी देश के एक महत्वपूर्ण औद्योगिक केंद्र और वाणिज्यिक केंद्र के रूप में ख्याति प्राप्त कर चुका है। ब्रिज सिटी से मशहूर हमारे सूरत शहर में विश्वका सबसे बड़ा हीरा उद्योग एवं कपड़ा उद्योग है। भारत के सबसे गतिशील शहरों में से एक हमारे सूरत के विकास का दर गुजरात के विभिन्न भागों और भारत के अन्य राज्यों से आए आप्रवासियों के कारण सबसे तेज़ है।

सूरत शहर का इतिहास केवल बंदरगाह व व्यापार तक सीमित नहीं है, हमारे पुरातन सूर्यपुर का इतिहास तो हमारे महान प्रमुख दो ग्रंथ रामायण एवं महाभारत के साथ मुगल शासन के अकबर,औरंगजेब, जहाँगीर जैसे नामों  के साथ भी जुड़ा हुआ हैं। सूरत शहर के आध्यात्मिक इतिहास में रामायण की बात करें तो, प्रथम नाम आता है हमारे आराध्य भगवान श्रीराम और उनके पिता राजा दशरथ का, मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम और राजा दशरथ के जीवन प्रसंग के कुछ पहेलु का हिस्सा रहे हमारे सूरत शहर के इतिहास पर विस्तार से बात करें तो,

सूरत शहर और हमारे आराध्य प्रभु श्रीराम की ऐतिहासिक कथा…
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